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UNIT-1. द्रव्य गुण शास्त्र परिभाषा
द्रव्य गुण विज्ञान के सप्त पदार्थ के लक्षण:
i.द्रव्य ii.रस iii.गुण iv.वीर्य | v.विपाक vi.प्रभाव vii.कर्म |
द्रव्य गुण शास्त्र परिभाषा
द्रव्य= जिसके आश्रय में गुण एवं कर्म समवायी सम्बन्ध से हों, उसे द्रव्य कहते हैं.
गुण= किसी कार्य को निष्पादित करने के लिए आवश्यक धर्म या निश्चेष्ट कारण को गुण कहते हैं. यह द्रव्यों में समवायी सम्बन्ध से मौजूद रहता है
- यहाँ गुण शब्द से गुण, कर्म एवं प्रयोग इन तीनों का बोध होता है.
द्रव्य गुण शास्त्र- औषध एवं आहार के रूप में प्रयुक्त होने वाले दव्यों के गुण, कर्म एवं प्रयोग के बारे में जिस शास्त्र में वर्णन हो उसे द्रव्य गुण शास्त्र कहते हैं.
i.द्रव्य के लक्षण
यत्राश्रिता: कर्मगुणा: कारणं समवायी यत् । तद् द्रव्यम् – च. सू. १
1.जिसमें कर्म एवं गुण आश्रित हों
2.जो अपने कार्य का समवायी कारण हो
उदा. – मिट्टी और धागा में अपने अपने गुण और कर्म निहित हैं और वे क्रमशः घड़ा और कपड़ा का समवायीकारण द्रव्य हैं
शरीर के दोष, धातु और मलों में भी द्रव्यों की समवायी कारणता है.
क्रियागुणवत् समवायीकारणं द्रव्यम् । – सु. सू. 4०
कारण के तीन प्रकार-
a.समवायी कारण
b.असमवायी कारण
c.निमित्त कारण
i.द्रव्य के लक्षण
द्रव्यमाश्रयलक्षणं पंचानाम् – रस वैशेषिक (नागार्जुन)
-जिसमें रस, गुण, विपाक, वीर्य और कर्म आश्रित हों
रसादिनां पंचानां भूतानां यदाश्रयभूतं तद् द्रव्यम।
– भावप्रकाश
ii. रस के लक्षण
रसनार्थो रस: – च.सू.१
-रसनेन्द्रिय द्वारा जिस गुण का ग्रहण होता है
iii. गुण के लक्षण
समवायी तू निश्चेष्ट: कारणं गुण: – च.सू.१
-जो समवायी सम्बन्ध से द्रव्य में आश्रित हो
-जो कर्म रहित हो
-कार्य के प्रति असमवायी कारण हो
विश्वलक्षणा: गुणा: – रस वैशेषिक (नागार्जुन)
– जिन पदार्थों में अनेक विध लक्षण मिलते हों उन्हें गुण कहते हैं.
iv. वीर्य के लक्षण
येन कुर्वन्ति तद् वीर्यं – च.सू.२६, सु.सू. ४१
-जिस शक्ति से द्रव्य अपने कर्मों को करता है उसे वीर्य कहते हैं
वीर्यं तू क्रियते येन या क्रिया – च. सू.२६
-द्रव्य की शक्ति, जिससे वह कर्म सामर्थ्य होता है, वही वीर्य है
-उत्कृष्ट शक्ति संपन्न गुणों को वीर्य कहते हैं – सुश्रुत, वाग्भट
v. विपाक के लक्षण
-जठराग्नि के योग से पाचन क्रिया के अंत में भोजनादि जिस पदार्थ या रसविशेष में परिणीत होता है, वही विपाक है
-आहार से सार रस और मल के पृथक होने पर प्राप्त सार रस ही विपाक है
अवस्था पाक – आमाशय, पच्यमानाशय, पक्वाशय = प्रपाक
निष्ठा पाक – अवस्था पाक के बाद अंतिम परिणाम = विपाक
vi. प्रभाव के लक्षण
-किसी द्रव्य में रस, विपाक और वीर्य के सामान्य रहने पर भी यदि कर्म विशेष हो तो इसका कारण उस द्रव्य की विशिष्ट शक्ति होती है. यही विशिष्ट शक्ति प्रभाव कहलाती है. – च. सू. २६
उदा.- तिल और मदनफल – दोनों मधुर, कषाय, तिक्त, स्निग्ध और पिच्छिल हैं परन्तु मदनफल वामक होता है और तिल नहीं.
vii. कर्म के लक्षण
संयोगे च विभागे च कारणं द्रव्यमाश्रितम् ।
कर्तव्यस्य क्रिया कर्म, कर्म नान्यद्पेक्षते ।। – च. सू. २६
-जो संयोग और विभाग अनपेक्ष (स्वतंत्र) कारण हो
-जो द्रव्य में आश्रित हो
संयोग, वियोग = परिवर्तन –> कार्य
– शरीर में परिवर्तन उत्पन्न करने वाले द्रव्यगत पदार्थ को कर्म कहते हैं. – वैशेषिक