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इस विडियो में निम्लिखित टॉपिक्स सम्मिलित किया गया है-
यूनिट-3. द्रव्य विज्ञानीयम
3.1 द्रव्य: लक्षण, संख्या, वर्गीकरण
3.2 पंचभूत: पंचमहाभूतों की उत्त्पत्ति के विविध सिद्धांत (तैत्तिरीय उपनिषद्, न्याय-वैशेषिक, सांख्य योग, शंकराचार्य, चरक और सुश्रुत), भूत के लक्षण एवं गुण, पंचमहाभूत का आयुर्वेद में महत्व
3.3 काल: व्युत्पत्ति, लक्षण, भेद, आयुर्वेद में काल का महत्त्व
3.4 दिक्: लक्षण, भेद, दिक् का आयुर्वेद में महत्त्व
3.5 आत्मा: लक्षण, वर्गीकरण, अधिष्ठान, गुण, चरक के अनुसार लिंग, आत्मा के ज्ञान की प्रवृत्ति
3.6 पुरुष: आयुर्वेदानुसार अतिवाहिक पुरुष, सूक्ष्म शरीर, राशि पुरुष, चिकित्स्य पुरुष, कर्म पुरुष, षडधात्वात्मक पुरुष
3.7 मनस: लक्षण, पर्याय, गुण, विषय, कार्य, उभयात्मकत्व, व्याधि अधिष्ठान, पंचभूतात्मकत्व
3.8 पंचमहाभूत का देहप्रकृति एवं त्रिगुणों का मानसप्रकृति में भूमिका
3.9 तमस दसवां द्रव्य
3.१ द्रव्य की निरुक्ति
-“द्रु” गतो धातु से यत प्रत्यय होकर द्रव्य शब्द बना है जिसका अर्थ है जो गमनशील हो, जिसे प्राप्त किया जा सके, जो ज्ञान प्रदान करे.
-जो सदा परिणाम को प्राप्त करे
-जिससे परिणाम का ज्ञान हो
-जिसमे निरंतर संयोग या विभाग होता रहता है
(महाभूत/ परमाणु रूप में रूप में)
3.1 द्रव्य के लक्षण
यत्राश्रिता: कर्मगुणा: कारणं समवायी यत् । तद् द्रव्यम् – च. सू. १
1.जिसमें कर्म एवं गुण आश्रित हों
2.जो अपने कार्य का समवायी कारण हो
उदा. – मिट्टी और धागा में अपने अपने गुण और कर्म निहित हैं और वे क्रमशः घड़ा और कपड़ा का समवायीकारण द्रव्य हैं
शरीर के दोष, धातु और मलों में भी द्रव्यों की समवायी कारणता है.
क्रियागुणवत् समवायीकारणं द्रव्यम् । – सु. सू. 4०
3.1 द्रव्य की संख्या
९ द्रव्य – पंचमहाभूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी), आत्मा, मन, काल, दिक्
-चरक, तर्कसंग्रह, वैशेषिक
3.1 द्रव्यों का वर्गीकरण
१. योनि भेद से- जांगम, औद्भिद, भौम
२. प्रयोग भेद से- औषध द्रव्य, आहार द्रव्य
3. रस भेद से- मधुर स्कन्ध, अम्ल स्कन्ध, लवण स्कन्ध, कटु स्कन्ध, तिक्त स्कन्ध, कषाय स्कन्ध
4. दोषकर्म भेद से- दोष प्रशमन, धातुप्रदूषक, स्वास्थ्यकारक
५. आहार द्रव्य भेद से- शूक धान्य, शमी धान्य, मांस, शाक, फल, हरित आदि 12 (च.)
6. कर्म भेद से- 50 महाकषाय, ३७ गण
3.२ महाभूत की निरुक्ति
भू + क्त: = भूतः
- भू: सत्तायाम् धातु में क्त प्रत्यय लगा कर भूत शब्द बनता है.
- भूत का अर्थ है जिसकी सत्ता हो या जो विद्यमान रहता हो.
- ये कारण द्रव्य होते हैं, पंचभूतों से पंचमहाभूतों की उत्पत्ति होती है. महाभूत कार्य द्रव्य हैं
- पंचभूतों में महत्त्व अथवा स्थूलता आने के कारण जब वे इन्द्रियग्राह्य अथवा अनुमानीय हो जाते हैं तो वे महाभूत कहलाते हैं.
- ये पंचमहाभूत सभी चल-अचल वस्तुओं में विद्यमान हैं इसलिए भी इन्हें महाभूत कहा जाता है.
अष्ट प्रकृति- अव्यक्त, बुद्धि, अहंकार, पंचतन्मात्राएँ
षोडश विकार- एकादश इन्द्रिय, पंचमहाभूत
परमाणु वाद
- पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के नित्य परमाणुओं से जगत की रचना होती है.
- परमाणुओं की सृष्टि और नाश नहीं होता.
- परमाणुओं का संयोग ही निर्माण है और बिखराव ही विनाश है.
- ईश्वर की इच्छा से परमाणु में क्रिया एवं परिवर्तन होकर सृष्टि की उत्पत्ति होती है
- 4 परमाणु + जीवात्मा (पूर्व जन्म के कर्म संस्कारों से युक्त एवं अदृश्य)
3.२ भूत के लक्षण एवं गुण
द्रव्य | लक्षण | गुण | त्रिगुण बहुलता |
आकाश | अस्पर्शत्व | शब्द | सत्व बहुल |
वायु | चलत्व | स्पर्श + शब्द | रजो बहुल |
अग्नि | उष्णत्व | रूप + शब्द, स्पर्श | सत्व रजो बहुल |
जल | द्रवत्व | रस + शब्द, स्पर्श, रूप | सत्व तमो बहुल |
पृथ्वी | खरत्व | गंध + शब्द, स्पर्श, रूप, रस | तमो बहुल |
3.२ पंचमहाभूत का आयुर्वेद में महत्त्व
१.गर्भ विकास – शारीर के परमाणुओं का विभाग (वायु), पाक (अग्नि), क्लेदन (जल), संघात (पृथ्वी), विवर्धन (आकाश). संतान का वर्ण भी महाभूतों के कारण.
२.शरीरावयव – विभिन्न भाव (पार्थिव आदि भाव)
३.त्रिदोष – वात = वायु | पित्त = अग्नि | कफ = जल
४.देह प्रकृति – मनुष्य की ५ प्रकार की भौतिक प्रकृति (सु.शा. 4/७२)
५.षडरस – मधुर (पृथ्वी+जल), अम्ल (पृथ्वी+अग्नि), लवण (जल+अग्नि), कटु (वायु+अग्नि), तिक्त (वायु+आकाश), कषाय (वायु+पृथ्वी)
६.भूताग्नि – आहारगत भूत गुणों के पाक हेतु
3.3 काल की व्युत्पत्ति
संस्कृत: “काल” शब्द ककार और आकार तथा ली धातु का लकार लेकर बनता है
3.3 काल के लक्षण
१.काल सतत गतिशील होने के कारण सूक्ष्मातिसूक्ष्म कला में ले नहीं होता.
२.काल सभी महाभूतों का संहार कर एक राशि कर देता है.
३.काल समस्त प्राणियों को सुख दुःख से युक्त करता है.
४.काल आयु को संक्षिप्त कर देता है.
५.काल मृत्यु को समीप लाता है.
६.काल कर्म को परिणाम में परिणत करता है.
७.भूत, भविष्य तथा वर्तमान के व्यवहार का कारण द्रव्य ही काल है. यह सर्वव्यापक और नित्य है.
3.3 काल के भेद
काल – संवत्सर, आतुरावस्था = २ भेद
- संवत्सर – उत्तरायण, दक्षिणायन
- संवत्सर- शीत, उष्ण, वर्षा
- संवत्सर- शिशिर, वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत
- संवत्सर- शुक्ल पक्ष, कृष्ण पक्ष
- आतुरावस्था- काल, अकाल (औषधि सेवन हेतु काल)
3.3 आयुर्वेद में काल का महत्त्व
-भोजन/ औषध सेवन काल
-रसादि धातुओं की परिपक्वता. पुरुष- 25 वर्ष, स्त्री- १६ वर्ष – सुश्रुत
-पुराण घृत, औषधि की सवीर्यता अवधि
-रोग की साध्यासाध्यता
-चिकित्सा कर्म हेतु उपयुक्त काल, जैसे- ग्रीष्म काल, शरत काल – अग्निकर्म निषेध
-द्रव्यों का संग्रह काल
-दोषों का कालानुसार संचय, प्रकोप, प्रसर
3.4 दिक् लक्षण
-जिससे यह पूर्व में है और यह उसके पश्चिम में है आदि का ज्ञान हो
-परत्व अपरत्व ज्ञान से दिक् ज्ञान होता है
-दूरत्व एवं समीपत्व का ज्ञान होता है
-पूर्व पश्चिम आदि व्यव्हार ज्ञान का बोध होता है
3.4 दिक् के भेद
- उपाधि भेद से १० भेद
3.4 दिक् का आयुर्वेद में महत्त्व
-दिशा अनुरूप वायु के गुण का ज्ञान
-दिशा अनुसार नदी क जल के गुण का ज्ञान
-दिशा अनुसार औषधियों का गुण
-चिकित्सालय, रसशाला अथवा भवन का दिशा अनुसार निर्माण
-औषधियों का संग्रहण
3.५ आत्मा के लक्षण
-ज्ञान का अधिकरण आत्मा है
-जिस द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से ज्ञान हो
3.५ आत्मा का वर्गीकरण
१. परमात्मा २. जीवात्मा
१. परमात्मा २. अतिवाहिक आत्मा (सूक्ष्म शरीर युक्त आत्मा) 3. स्थूल चेतन शारीर – (कर्म पुरुष)
1. भूतात्मा २. इन्द्रियात्मा 3. प्रधानात्मा 4. जीवात्मा ५. परमात्मा – (विष्णु पुराण)
3.५ चरक के अनुसार लिंग
-सूक्ष्म शरीर = लिंग शरीर
-जीवात्मा एक शरीर से दुसरे शरीर में सूक्ष्म 4 भूतों के साथ अदृश्य रूप में (लिंग शरीर में) धर्माधर्म रूप कर्म के अनुसार मन की गति से जात है. बिना दिव्य दृष्टि उसके स्वरुप का किसी को कोई दर्शन नहीं होता है. – च. शा. २/३१
-१८ तत्व = लिंग शरीर – बुद्धि, अहंकार, एकादश इन्द्रिय, पंचतन्मात्राएँ
3.५ आत्मा के ज्ञान की प्रवृत्ति
-च.शा. १/५४-५५ –
आत्मा “ ज्ञ “ = ज्ञाता है. तो फिर उसे सर्वदा ज्ञान क्यों नहीं होता है?
-करणों की अविमलता (अयोग) से ज्ञान नहीं होता है.
-मलिन शीशे में अथवा कलुषित जल में प्रतिबिम्ब दृष्टिगोचर नहीं होता
उसी प्रकार मन (करण) के अयोग या अपहत होने से ज्ञान नहीं होता
3.6 पुरुष
पुर अर्थात शरीर में जो आत्मा सोता है, वह पुरुष कहलाता है. – चक्रपाणि
3.6 अतिवाहिक पुरुष = सूक्ष्म शरीर = लिंग शरीर
-जीवात्मा एक शरीर से दुसरे शरीर में सूक्ष्म 4 भूतों के साथ अदृश्य रूप में (लिंग शरीर में) धर्माधर्म रूप कर्म के अनुसार मन की गति से जात है. बिना दिव्य दृष्टि उसके स्वरुप का किसी को कोई दर्शन नहीं होता है. – च. शा. २/३१
-१८ तत्व = लिंग शरीर – बुद्धि, अहंकार, एकादश इन्द्रिय, पंचतन्मात्राएँ
3.6 राशिपुरुष
२४ तत्वात्मक पुरुष = राशि पुरुष – च.शा. १/25
– अव्यक्त, बुद्धि, अहंकार, ११ इन्द्रियां, पंचतन्मात्राएँ, पंचमहाभूत
राशि = पुंज, समूह
3.6 चिकित्स्य पुरुष
सत्व, आत्मा, शरीर (पंचमहाभौतिक) = अधिकरण पुरुष = चिकित्स्य पुरुष
3.6 कर्म पुरुष
पंचमहाभूत, चेतना धातु = षडधातुज पुरुष = कर्म पुरुष
3.7 मन
– मन्यते अवबुध्यते ज्ञायते अनेन इति मन: = जिसके द्वारा कुछ जाना जाता है, उसे मन कहते हैं.
-मननात् मन: = मनन करने की क्षमता होने के कारण इसे मन कहा जाता है.
3.७ मन के लक्षण
-ज्ञान का अभाव और भाव. आत्मा, मन, इन्द्रिय, इन्द्रियार्थ (इन्द्रियों के विषय), इन चारों का सन्निकर्ष ही ज्ञान का भाव है/ ज्ञान का होना है.
-एक साथ अनेक विषयों का ज्ञान न होना.
-सुख दुःख के ज्ञान का साधन
3.7 मन के पर्याय
-चित्त, ह्रदय, मानस
-अतीन्द्रिय = सभी इन्द्रियों के एक एक विषय निहित हैं, जबकि मन का सभी इन्द्रियों के विषय से सम्बन्ध है. मन का सन्निकर्ष जब किसी इन्द्रिय से होता है तभी वह अपने विषय ग्रहण करने में सक्षम हो पाती है.
-सत्व
3.७ मन के गुण
२ गुण – अणुत्वं, एकत्वं – च.शा.१/१९
3.7 मन के विषय
1.चिन्त्यं – विभिन्न विषयों की चिंता करना
2.विचार्यं – गुण-दोष से विवेचना करना
3.ऊह्यं – संभावना के आधार पर तर्क करना
4.ध्येय – एकाग्र मन से ध्यान करना
5.संकल्पं – कर्तव्य अकर्तव्य, गुण दोष को ध्यान में रखकर कल्पना करना
6.अन्य जो कुछ भी मन के द्वारा जानने योग्य या ग्रहण करने योग्य है, वे सभी मन के विषय हैं.
3.7 मन के कार्य
१.इन्द्रियाभिग्रह – इन्द्रियों को उनके विषयों में प्रेरित करना
२.निग्रह – अनिष्ट विषयों में लगे हुए मन का (स्वयं का) निग्रह / नियमित करना
३.ऊह: – शास्त्रादि के अर्थ को युक्तिपूर्वक विचार कर स्थापित करना
४.विचार – किसी विषय के ग्रहण करने अथवा न करने जैसा भाव/ विचार
५.बुद्धि / ज्ञान उत्त्पत्ति में सहायक – विचारादि के पश्चात ज्ञान की उत्पत्ति होती है की क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य
3.7 मन का उभयात्मकत्व
सभी इन्द्रियों के एक एक विषय निहित हैं, जबकि मन का सभी इन्द्रियों के विषय से सम्बन्ध है. मन का सन्निकर्ष जब किसी इन्द्रिय से होता है तभी वह अपने विषय ग्रहण करने में सक्षम हो पाती है.
ज्ञानेन्द्रिय + कर्मेन्द्रिय + विषय + मन = विषय ग्रहण एवं उसका ज्ञान
3.७ व्याधि अधिष्ठान
मानसिक व्याधियों का आश्रय मन है
रज एवं तम – २ मानस दोष
स्मरण, चिंतन, मनन, वाणी और कर्म से सद्कर्म करना, मन अपने अधीनस्थ हो – स्वास्थ्य कर होता है. च.शा. २/४७
गर्भोत्पत्तिकर 6 भावों में मन भी एक भाव है – गर्भ में आत्मा का आगमन सत्व द्वारा ही होता है
3.7 मन का पंचभौतिकत्व
द्रव्य | त्रिगुणात्मक मन |
आकाश | सत्व बहुल |
वायु | रजो बहुल |
अग्नि | सत्व रजो बहुल |
जल | सत्व तमो बहुल |
पृथ्वी | तमो बहुल |
3.८ पंचमहाभूत का देहप्रकृति में भूमिका
देह प्रकृति- ७ प्रकृति – वातज, पित्तज, कफज, वात-पित्तज, पित्त-कफज, वात-कफज, सम
सुश्रुत – ५ भौतिक प्रकृति (पार्थिव, जलज, वायवीय, आग्नेय, आकाशज)
महाभूत | देह प्रकृति |
आकाश + वायु | वातज |
अग्नि | पित्तज |
जल + पृथ्वी | कफज |
3.८ त्रिगुणों का मानसप्रकृति में भूमिका
मानस प्रकृति- 3 प्रकृति – सात्विक, राजसिक, तामसिक
द्रव्य | त्रिगुणात्मक मन |
आकाश | सत्व बहुल |
वायु | रजो बहुल |
अग्नि | सत्व रजो बहुल |
जल | सत्व तमो बहुल |
पृथ्वी | तमो बहुल |
3.९ तमस दसवां द्रव्य
तम= अन्धकार
– तमस दसवां द्रव्य क्यों? = कृष्ण रूप गुण, अपसरण कर्म, तम का प्रत्यक्ष ज्ञान
– तमस को दसवां द्रव्य नहीं माना जा सकता क्योंकि – तम में द्रव्यत्व का अभाव है. तम की स्वतंत्र सत्ता नहीं है, वह तो प्रकाश का आभाव है.
-प्रकाश को तम का अभाव कहें तो? प्रकाश तेज महाभूत है, और महाभूत की असिद्धि नहीं हो सकती. तेज की स्वतंत्र सत्ता है.
-यहाँ समझना कि तम गतिमान है तो यह भ्रम है. प्रकाश की गति होती है.
-चक्षुइन्द्रिय से विषयों का ग्रहण प्रकाश में होता है न कि अंधकार में